Sunday, April 3, 2016

इम्तेहान-ए-इश्क

चेहरे पर थोड़ी हँसी काबिज़ थी, पर जेहन में थोडा ग़म जरूर था,

क्यूँ हो गई खफा तू मुझसे ए जिंदगी, बता न मेरा क्या कुसूर था,

लगने लगा था जैसे पहुँच ही गया हूँ मंज़िल पर अपनी,

पर मेरा आशियाँ अभी मेरी पहुँच से बहुत दूर था,




आप सीने पर लगा रहे थे और मैंने तह-ए-दिल पर खाया था,

आपके मरहम और मेरे घावों में, बस इतना फर्क हुज़ूर था,

ज़माने भर की तन्हाई वो मुझे तोहफे में दे गया,

जिसे मेरा तन्हा होना इक पल भी नामंज़ूर था,




वो अपने इम्तेहान-ए-इश्क में इस कदर मात खा गए,

जिन्हें अपनी वाफाओ का बे-इन्तेहा गुरूर था,

हर्फ़ चुरा लेता है अपनी मोहोब्बत के किस्से कुरेदकर,

‘अश्क’ तेरा ये इक हुनर शहर भर में मशहूर था ||